जीवन एक कोरा कागज़ है
जो करनी के स्याही से भरता है
काली करनी के स्याही से
क्यों कागज मैला करता है
एक बार जो स्याही लिखता है
एक अमिट छाप बन जाता है
फ़िर मिटने से नही मिटता है
एक अंत दिशा रह जाता है
कागज़ को अलग कराता है
उसका अस्तित्व विमोचन है
फ़िर मूल रूप नही आता है
कुछ इसी तरह जीवन की भी
कागज जैसी ही जुबानी है
एक बार हुआ जो मैला सही
जीवन भर मिट नही पता है
फ़िर उसी रूप में आना हैं
सम्भव ही नही हो पाता है
जीवन का अस्तितत्व गया
उन भूलो का प्रश्चित्य न हुआ
जीवन की गाथा सिमट गई
जीवन को व्यर्थ ही गवां दिया
जो व्यर्थ हुआ सो व्यर्थ हुआ
अब आगे सोच क्या करना है
जो करना है सो जल्दी कर
कही फ़िर न कोई मुशिकल आन पड़े!
प्रस्तुत ब्लॉग के जरिये मै जन -साधारण तक अपने भावनाओं को संप्रेषित करता चाहता हूँ जिससे समाज में एक नयी धारा का प्रवाह हो सके ...मानव आज के इस अर्थ-प्रधान युग में एवं विकाश की इस अंधी दौड़ में सामाजिक-मूल्यों एवं उनके ओउचित्य को ही भुला बैठा है ....बस मै अपने कविता के माध्यम से उन सामाजिक ,सांस्कृतिक मूल्यों को पुनः शुशोभित करना चाहता हूँ जिससे हमारा समाज ही नहीं अपितु समूचा भारत अपने जिस सभ्यता के लिए विश्व के भौगौलिक पटल पर अपनी छाप को बनाये हुए था वो ठीक उसी प्रकार बनी रहे!
Hey.... really its good......
जवाब देंहटाएंIts not a poem of aesthetic pleaser but a call for morals a plea for ethical life and warning to materialist view of life.
जवाब देंहटाएंachchhi kavita .badhaai ho .swagat hai .
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