शनिवार, 6 जून 2009

बचपन के दोस्त

अब यह मै जानने लगा हूँ
मानो वह मेरी बचपन की दोस्त हो
मेरी इच्छा थी की मै कुछ बात करूँ
पर समुद्र इतना आविष्ट है
की तुमसे संवाद नही कर पाता
यह महज एक सयोंग है की
सब कुछ कितना सहज लगता है
खोये हुए रास्ते भी कभी घरो तक पहुँच जाते है
और जीवित हो जाती है उनकी यादें
खुदाईयों के बाद घरो का इतिहास तो निकल आता है
पर टूटे हुए दिल ,खोये हुए रास्ते का नही
सपने में रची कविता सुबह तक याद रही
आँखे खुलते ही टूट गई
मेरे बारे में सबको बताते हुए
तुम्हारे होठो में क्या छिपा रह जाता है
अब यह मै जानने लगा हूँ की
तुम कहोगे नही शायद तुम कुछ नही कहोगे !


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