शनिवार, 6 जून 2009

विडम्बना

कवि सृजन करता है
मोहपाश में बाँध कर नही
है तो मानो वह स्वछंद
किंतु हिचकता है बिचकता है
सच्चाई जतलाने से
डरता है कही रूठ न जाए
उसकी अपनी कल्पना का ओज
जिसको करता है ध्येयमान
पंक्तिबद्ध कर पिरोहता है संजोहता है
तब कही बोलता है
फ़िर भी संशयमान है
सोचता है दहलता है
कही सच्चाई न उगल जाए
सच्चाई तो सच्चाई है
फ़िर अनायास को क्यों डरता है
डरना तो पड़ता है
जीना तो जीना है
मुमकिन नही छोड़ना मुहं मोड़ना
कवि तो कवि है,प्राणी भी कवि है
जीवन वरदान है सत्य अभिशाप है
कवि नही कवि नही,जब मुक्त शैली नही
मोह पाश में बंधा रहा
जीवन से भी जुड़ा रहा
सत्य को पुकारता है
अंश भर विचारता है
अब नही अब नही
शायद अब कभी नही !


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