शनिवार, 6 जून 2009

मोह का बंधन

मोह के बंधन में मानव
भूल रहा अपना कर्तव्य !
अंहकार का चोला पहने
भेद कर रहा मानव !
जो जन्मे एक ही माटी
जो समां गए उसी पंचतत्व में !
आज उन्ही को बाट रहा
अपने स्वार्थ के सिद्धी में !
हे मानव !अब जाग उठ देख,
सुबह की किरणे तुझपर
बिखेर रही अपने आशीष
देख प्रकृत के प्रांजल को
जो है न्योछावर तेरे कदमो में !
सोच जरा तु मानव
ये भेद भावः है कैसा
क्या हवा ने अपने रुख को
मानव की जात देख कर मोड़ा हैं
सूरज ने अपने किरणों को
क्या भेद देखा कर भेजा है ,
क्या नदी ने अपनी धारा ही
यूँ जात पात से तोला है ,
पुर्वज ने दीर्घ विरासत को
कया भेद स्वीकार के सौपा है !
एक नन्हा दीपक जब ,
झोपड़ी में जलता है
तब उतना ही रोशन करता है
जितना वह महलों में करता है !
जब-जब प्रकृत ने तांडव किया
तब-तब राजा रंक भी एक हुआ !
हे मानव ! तु सोच जरा
जब प्रकृत ने नही भेद किया
फ़िर हम क्यों मानव भेद करे
छोड़ इन सब काया को
अपना लो तुम हर मानव को !



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