रविवार, 28 जून 2009

मै?

वक्त के रफ़्तार में ,एक प्रश्न के तलाश में

मै पूछता हूँ हर किसी से

कौन हूँ मै ? कौन हूँ मै ?

हर किसी के मुख से सुनाता हूँ

मेरा एक परिचय नया

हर बार मेरे व्यक्तित्व का

एक नया प्रतिबिम्ब बना

वक्त के रफ़्तार में एक प्रश्न के तलाश में ....

हर किसी के खुद के सांचे में हमें ढाला गया

एक नया पुतला बना मै

एक नया परिचय मिला

फिर भी मै एक उस अधूरे प्रश्न की तलाश में

वक्त की रफ़्तार में हर एक नए जवाब में

खुद का न चित्रण कर पाया

अंततः मै उस नतीजे पे गया

मै वही हूँ मै वही हूँ

लोग जैसा चाहते है

देखना और बोलना !

वक्त की रफ़्तार में ......!

शुक्रवार, 12 जून 2009

सुपुर्दे खाक

नेश्तो नाबुद कर देंगे
तेरे नापाक इरादों को
जला कर खाक कर देंगे
तेरे खुदगर्ज आवामों को

बड़े तेरे कदम सुन
हमारे स्वर्ग सी धरती पर
सुपुर्दे खाक कर देंगे
तेरे इंसानी ढाँचे को

जहर घोला है जो तुमने
हमारे अमन आवामों में
उन्हें अब दूर कर देंगे
हम सब एक हो कर के

अँधेरा तुम जो करते हो
हमारे घर के आँगन में
समां हम रोशन कर देंगे
तेरे उन चिता की आगो से

तेरे आतंक का साया
अब हम छाने देंगे
तेरे गुस्ताख मंसूबो को
पुरा होने देंगे
तेरे हर जुल्मो सितम का
हम गिन-गिन कर बदला लेंगे
तेरे नामो निशां को ही मिटा कर दम लेंगे ||
GRACE OF GOD
Oh man! Listen here oh man
By the grace of
God be with you
At luckily moment
God be with you
What will be will be
By the grace of God
From day to day
Give place to your betters
With courage and faith
Love conquers all
Oh! Man attend you what you do
Oh! Man beware what you say
When and whom
This is labor, this is toil
I think therefore I exist!
…………………………………………..

गुरुवार, 11 जून 2009

३.विचार करने योग्य बातें - सफलता

  • सफलता अपितु कोई वस्तु नही यह एक यात्रा है जो जीवन पर्यन्त चलती रहती है |
  • सफलता एक ऐसा मंच है जिस पर मनुष्य अपनी नित-नूतनता को बरकरार रखता है |
  • सफलता एक ऐसी कुंजी है जो हमारे भीतर संसोधन की कला को विकसित करता है |

२. विचार कराने योग्य-- जीवन

  • जीवन एक ऐसी धारा जिसकी बहाव स्वतः एक दिशा का निर्माण करती है ,जो स्वछंद है एवं जिस पर प्रकृति एवं काल चक्र का ही राज है |
  • जीवन एक ऐसा कला मंच है जिस पर इंसान एक कठपुतली मात्र है जो परिस्थितियों के विभिन्न आयामों में क्रियान्वित एवं परिभाषित होता है,जिसकी अपनी एक स्वछंद धारा होती है जिसे जीवन धारा का नाम देतेहैं जिसका कोई किनारा नही है |
  • जीवन खामोश है ,इसकी खामोशी जीवंत हो उठती है जब यह दूसरो के लिए बोलती है |
  • जीवन को जीना एक कला है उस कला का विकाश करना एक विज्ञान है जो हमारे व्यक्तित्व का ठोस आधारहै जिससे हम अपने मानवीय कौशल एवं चरित्र की आन्तरिक एवं व्यवहारिक संरचना करते है |
  • जीवन मुल्य हमारे जीवन का एक ऐसा अभिन्न पक्ष है जो हमारे जीवन को स्थाई अस्थायी रूप से प्रभावित करती है जो हमारे जीवन को सार्थकता प्रदान करती है जिससे हमारे जीवन में मानवीय गरिमा का आगमन होता है |

मंगलवार, 9 जून 2009

मनुष्य के सन्दर्भ में विचार करने योग्य बातें !

मानव विकसौन्मुक्त प्राणी है वह अपने जीवन काल में अनेकों उत्पत्ति करता है,सृजन करता है अंततः विकाश के उस पथ पर आरूढ़ हो जाता है जिस वह जीवन काल तक चलता रहता है
मनुष्य जब जन्म लेता है तब वो अबोध रहता है ,असहाय रहता है एवं रोया बिलखता है ,कदाचित उसे अपने अस्तित्व का भी ज्ञान नहीं रहता है वह भीतर से शुद्ध निर्मल एवं पवित्र रहता है उसकी आत्मा दुध की भांति श्वेत एवं निर्जल है वह धीरे धीरे बड़ा होता है और उसके जीवन में कई उतार चढाव आतें है जिसको वह सहता है एवं उससे ऊपर उठते हुए एक व्यवहारिक जीवन की कामना करते हुए एक विलक्षण अध्याय एवं समाज की रचना करता है

    • मानव का स्थाई रवैया ही उसके समाज के चरित्र एवं स्थाई आधार का संरचना करता है
    • मानव के मानवीय गुणों का विकाश उसके सामाजिक परिवेश पर निर्भर है
    • व्यक्ति अपनी काल ,परिस्थियाँ और परिवेश के अनुसार ही अपने व्यक्तीत्व का निर्माण कर पाने में सहज समर्थ हो पता है
    • मनुष्य एक भावनात्मक प्राणी है,उसके भीतर बुद्धि एवं विवेक की उपस्थिति सामान रूप से होती है
    • मानव की सोच उसके क्षमता का निर्धारण करती है परन्तु उसकी क्षमता उसके सोच से कई गुना बड़ी होती है
    • मानव संघर्षशील प्राणी है जो जीवन पर्यंत संघर्षरत रहता है किंतु जब वो थक जाता है तत्पश्चात ही जीवन की अंत दिशा सुनिश्चित हो जाती है
    • मनुष्य एक प्रेरणाकारी प्राणी है वह जैसा प्रेरणा पाता है उसके विचार की प्रधानता उसी कर्म की ओर अग्रसर हो जाती है
    • मानव व्यवहार व्यवस्था को जन्म देती है अंततः व्यवस्था मानव चरित्र ,विकाश एवं उसके आचार-व्यवहार के साथ में उसके प्रतिक्रिया का भी निर्वहन एवं निर्गमन करती है
    • मानव अपने व्यवथा के अनुसार ही अपने परिपेक्ष्य का निर्माण करता है
    • मनुष्य में चेतना की प्रधानता उसके अंतर्मन में विद्यमान है कदाचित् सही अवसर प्रदान न होने के कारण उसकी चेतना निद्रावस्था में विद्यमान है जो सर्वथा अनुचित है
    • मनुष्य की उपलब्धि उसके कार्य शैली पर निर्भर करती है, उसकी शैली उसके मनोविज्ञान पर निर्भर करती है ,जो किसी परिवेश,समाज एवं व्यवस्था के अर्न्तगत विकसित होती है जो की निश्चित वातावरण के अनुसार मनोदशा का निर्माण करता है जिसका सीधा सम्बंध भावना एवं चेतना से है !
    • मानव शैली एवं उसके गुणों का विकाश उसके स्वयं के व्यवहारों एवं दृष्टिकोण पर निर्भर है जो उसके स्वयं के विचार,बोध एवं बुद्धिमता से प्रभावित एवं परिचालित है
    • मानव ज्ञान की उपलब्धि उसके लिए नही अपितु पूरे समाज के लिए है जो सामाजिक संरचना को एक नवीन आधार प्रदान कर सकता है
    • मनुष्य अपने व्यवहारों का स्वयं संपादक होता है जिसके नियंत्रण में उसका महत्वपुर्ण योगदान है अन्य सिर्फ़ पथ-प्रदर्शक का कार्य करते हैं

राम की सरना--- भजन

मेरे राम मुझे तुम दर्शन दो
कब से मै आस लगाये बैठा !
पल-पल करता मै तुम्हारी सरना
मेरे राम मुझे तुम दर्शन दो!
है कौन दूजा ऐसा जग में
जिसकी भक्ति मै करता रहूँ !
इधर उधर मैं भटक रहा
मेरे राह की ज्योत जलना तुम्ही
जब कोई मुश्किल आन पड़े
मेरे जीवन में भटकाव पड़े
तब तुम्ही मेरे साथी बनाना
मेरे नाव के तुम नाविक बनना
बन खेवैया खेना तुम !
मेरे राम मुझे तुम दर्शन दो
कब से मै आस लगाये बैठा !

मुझे और नही कुछ चाहिए प्रभु
बस एक ही चाह बनाता हूँ
तेरे दर्शन को तेरे पूजन को
हे राम सभी को खुश रखना
जीवन में मधु-संचय को तुम
जीवन में सबके बनाये रखना
हे राम दया के सागर तुम
सब पर तुम दया को बनाये रखना
जो भूल गए तुम्हारी सरना
वो भक्ति तो करते ही नहीं
पर तुमसे ही भक्ति पनपी
सबकी भक्ति को बनाये रखना
संसार तुम्हारी मुट्ठी में
नभ की भी निर्मल छाया है
उस छाया को तुम बनाये रखना
मन की इस चंचलता में
सब मोह माया में डूब गए
राम मेरे जो डूब गए
उनको भी चरणों में बिठाये रखना
तेरे चरणों की धूलि पाकर
उनका जीवन उद्धार हुआ
मेरे राम तुम सबमे बसते हो
अपने बसनी को बनाये रखना
मेरे राम मुझे तुम दर्शन दो
कब से मै आस लगाये बैठा !



परछाईं

परछाईं बयां कर देती है हकीकत आदमी की
जो होता है उस जगह चुप चाप खड़ा
मौन है उसकी हरकतें न जाने किस फिराक में
सोचता है की सब हैं बेखबर
पर है वही बेखबर
कि है सबको ख़बर कि -
परछाईं बयां कर देती है हकीकत आदमी कि !

रविवार, 7 जून 2009

श्याम सुधा

यमुना के तट पर सलोने श्याम आतें है
बंशी की धुन में वो गोपिया नाचते है

मईया यशोदा को श्याम बातों में रिझातें है
सखिओं का नित श्याम माखन चुराते हैं

सांझ -सवेरे श्याम गौंवें चरातें है
जमुना के तीरे श्याम राधा को बुलातें है

सखियों के साथ श्याम रास रचाते है
गोपियों को श्याम प्रेम रस में डुबाते
है


इन्द्र ने प्रकोप गोकुल वासियों पे डाला था
छोटी उंगली से श्याम गोवर्धन उठाया था
इन्द्र के घमंड को चूर- चूर कर डाला था
सारे गोकुल वासियों के प्राण को बचाया था !
कृष्ण गोवर्धन पूजा गोकुल वासी ने रचाया था !




किसान की कसक


एक कसक है किसान की आँखों में
जो पथराई हुई पद चिह्नों को लेकर
अपने खेतो की तरफ़ बढ़ता है
उस आस को संजोये जो कभी
उसके अधूरे सपनो को साकार करेगी
वर्षा के रिमझिम बूंदों से
उसके खेतो को सराबोर करेगी
खुशियाली की चमक लिए
उसके खेतो में किलकारियां गुजेगी
किसान भावः विभोर होकर
अपने मातृत्व से फसलो को सीचेगा और
जाने कितने भूखो के पेटो को निहाल करेगा !

मन का सराया

कोरस कहता है की दिल
वह तमन्न्नाओं का ढेर नही तुम
सीने में दबी वह उनकी यादें
जिसे उभर पता
तुम बिन वह सब व्यर्थ
नही जान पाया तुम्हारे
उस खूबसूरती को जिसको कभी
मन की आँखों से देखा ही नही
में जब तक कोरस था
तब तक तो कहता ही रहता था
पर अब जाने क्यों लिखने लगा
शायद तुमसे मिलने के बाद
उस मिलन की चर्चा तो थी
पर यादों को सीने में दबायें रखा
कोरस कहता है मन वो सराया नही
जिसे जब चाहे बसा ले
मन तो इच्छाओ का वो बसेरा है
जिसमे कल्पनाओं की वह सृष्टी
रची जा सकी !

शनिवार, 6 जून 2009

मै अकेला हूँ !

चाहता हूँ मगर अड़चन है
क्या करूँ दूर नही कर पता
ऐसी वैसी भी नही मुशिकल अड़चन है
फ़िर भी चाहता हूँ दूर करना
पर सम्भव भी कैसे
दूर करे भी करे कैसे
जो बन पड़ा किया
किंतु अब बस
हाथ पे हाथ धरा बैठा रहा
बैठा रहा घंटो इस इंतजार मै
की कोई तो आए
पूछे मेरे हाल चाल
किंतु मै और मेरी परिचाह्यीं
कर रही दुहाई कोई तो आये
भूले भटके पैर बढाए
राह की उपियोगिता बढाए
शायद मै गलत
मेरी तरह राह भी अकेली
जैसे मै और मेरा सूनापन
राह और उसपे बिखरे पथरीले कंकड़
शायद अब यही एहसास बची गले लगाने को
की मै ही मेरा यार हूँ !
शाम ढल रही
परीक्षाई भी साथ छोड़ रही
और ये कहती जा रही
तू अकेला है तू अकेला है
मै समझ गया की मै अकेला हूँ !

बचपन के दोस्त

अब यह मै जानने लगा हूँ
मानो वह मेरी बचपन की दोस्त हो
मेरी इच्छा थी की मै कुछ बात करूँ
पर समुद्र इतना आविष्ट है
की तुमसे संवाद नही कर पाता
यह महज एक सयोंग है की
सब कुछ कितना सहज लगता है
खोये हुए रास्ते भी कभी घरो तक पहुँच जाते है
और जीवित हो जाती है उनकी यादें
खुदाईयों के बाद घरो का इतिहास तो निकल आता है
पर टूटे हुए दिल ,खोये हुए रास्ते का नही
सपने में रची कविता सुबह तक याद रही
आँखे खुलते ही टूट गई
मेरे बारे में सबको बताते हुए
तुम्हारे होठो में क्या छिपा रह जाता है
अब यह मै जानने लगा हूँ की
तुम कहोगे नही शायद तुम कुछ नही कहोगे !


मानव गाथा

हे मानव ! तुम शेष नही अब पुरे हो
तेरी गाथा का गान अब देव ऋषि भी गायेंगे
देव तुम्हारी दर्शन को जप तप करते जायेंगे
तुम दर्शन के अभिलाषी सृष्टी के संचालक तुम
पंचतत्व के सार तुम्ही हो
तुम्ही तत्त्व हो ब्रम्ह के
ब्रह्म ज्ञान तुम्हारे भीतर है
ब्रह्माण्ड तुम्ही में समाया
तुम्हारे कंठ से निकला
स्वर गूंजी हृदय में तेरे
सरस्स्वती के ज्ञान तुम्ही हो
तुम्ही हो उनके सरगम
संगीत तुम्हारे रोम रोम में
सुर ताल तेरे कर कमलो में

तुम ख़ुद के विधि विधाता हो
तुम सर्व सृष्टी के पलक हो
तुम्ही हो आदि तुम्ही अंत हो
तुम्ही केन्द्र ब्रह्माण्ड के
अर्द्ध तुम्ही हो पूर्ण तुम्ही हो
तुम्ही सार ही पाप -पुण्य के
तत्व तुम्ही हो ईश देव के
गीता के वर्णात्मक तुम
तुम्ही शुन्य हो तुम्ही अनंत हो
तुम्ही मध्य के द्योतक हो
तुम्ही अस्त्र हो तुम्ही सस्त्र हो
तुम्ही प्रेम के पुजारी हो

जयकार तेरी हो ब्रह्म जगत में
हो ह्रदय में तेरे भावः सदा
हे मानवता के प्रतिपादक
तेरे चरणों में में जग नतमस्तक !
हे मानव ! तुम शेष नही अब पुरे हो !
हे मानव! तुम शेष नही अब पुरे हो

जीवन गाथा

जीवन एक कोरा कागज़ है
जो करनी के स्याही से भरता है
काली करनी के स्याही से
क्यों कागज मैला करता है
एक बार जो स्याही लिखता है
एक अमिट छाप बन जाता है
फ़िर मिटने से नही मिटता है
एक अंत दिशा रह जाता है
कागज़ को अलग कराता है
उसका अस्तित्व विमोचन है
फ़िर मूल रूप नही आता है


कुछ इसी तरह जीवन की भी
कागज जैसी ही जुबानी है
एक बार हुआ जो मैला सही
जीवन भर मिट नही पता है

फ़िर उसी रूप में आना हैं
सम्भव ही नही हो पाता है

जीवन का अस्तितत्व गया
उन भूलो का प्रश्चित्य न हुआ
जीवन की गाथा सिमट गई
जीवन को व्यर्थ ही गवां दिया
जो व्यर्थ हुआ सो व्यर्थ हुआ
अब आगे सोच क्या करना है
जो करना है सो जल्दी कर
कही फ़िर न कोई मुशिकल आन पड़े!





विडम्बना

कवि सृजन करता है
मोहपाश में बाँध कर नही
है तो मानो वह स्वछंद
किंतु हिचकता है बिचकता है
सच्चाई जतलाने से
डरता है कही रूठ न जाए
उसकी अपनी कल्पना का ओज
जिसको करता है ध्येयमान
पंक्तिबद्ध कर पिरोहता है संजोहता है
तब कही बोलता है
फ़िर भी संशयमान है
सोचता है दहलता है
कही सच्चाई न उगल जाए
सच्चाई तो सच्चाई है
फ़िर अनायास को क्यों डरता है
डरना तो पड़ता है
जीना तो जीना है
मुमकिन नही छोड़ना मुहं मोड़ना
कवि तो कवि है,प्राणी भी कवि है
जीवन वरदान है सत्य अभिशाप है
कवि नही कवि नही,जब मुक्त शैली नही
मोह पाश में बंधा रहा
जीवन से भी जुड़ा रहा
सत्य को पुकारता है
अंश भर विचारता है
अब नही अब नही
शायद अब कभी नही !


इंसानियत

मै कवि नही एक इन्सा हूँ
जो भावुकता के लहरों में
हर पल डूबा रहता हूँ
मै कवि नही एक इन्सा हूँ!
मेरे नयनो में भावुकता है
जो अश्रु का निर्माण करे
जो मन को निश्चल पाक करे
मै कवि नही एक इन्सा हूँ!
मेरे हृदय में करुणा वास करे
जो जीवन का उद्धार करे
पड़ चिह्नों का निर्माण करे
जो आयेंगे वो गायेंगे
आदर्शो को गले लगायेंगे
वो मानव की महिमा गायेंगे !
करुणा को गले लगायेंगे
मै कवि नही एक इन्सा हूँ !
मै कवि नही एक इन्सा हूँ ...!


मेरे राह में काटें भरे पड़े
नित मेंरे उस पर पावँ पड़े
जब पाँव पड़े तो सिहर उठे
तत् चरण के कोमल स्पर्शो से
जो पल में कोमल फूल बने
ममता की प्यासी मूरत ने
जीवन काटों का विभोर किया
जब काटें फूल में बदले थे
तब इन्सा क्यों नही बदले है
मै कवि नही एक इन्सा हूँ
मै कवि नही एक इन्सा हूँ
मुझमे प्रकृत की एक धारा है
जो नव जीवन का निर्माण करे
नित नूतनता से प्यार करे
प्रेम के शीतल धागा से
एक माला का निर्माण करे


मै कवि नही एक इन्सा हूँ
मै कवि नही एक इन्सा हूँ!


मोह का बंधन

मोह के बंधन में मानव
भूल रहा अपना कर्तव्य !
अंहकार का चोला पहने
भेद कर रहा मानव !
जो जन्मे एक ही माटी
जो समां गए उसी पंचतत्व में !
आज उन्ही को बाट रहा
अपने स्वार्थ के सिद्धी में !
हे मानव !अब जाग उठ देख,
सुबह की किरणे तुझपर
बिखेर रही अपने आशीष
देख प्रकृत के प्रांजल को
जो है न्योछावर तेरे कदमो में !
सोच जरा तु मानव
ये भेद भावः है कैसा
क्या हवा ने अपने रुख को
मानव की जात देख कर मोड़ा हैं
सूरज ने अपने किरणों को
क्या भेद देखा कर भेजा है ,
क्या नदी ने अपनी धारा ही
यूँ जात पात से तोला है ,
पुर्वज ने दीर्घ विरासत को
कया भेद स्वीकार के सौपा है !
एक नन्हा दीपक जब ,
झोपड़ी में जलता है
तब उतना ही रोशन करता है
जितना वह महलों में करता है !
जब-जब प्रकृत ने तांडव किया
तब-तब राजा रंक भी एक हुआ !
हे मानव ! तु सोच जरा
जब प्रकृत ने नही भेद किया
फ़िर हम क्यों मानव भेद करे
छोड़ इन सब काया को
अपना लो तुम हर मानव को !