चाहता हूँ मगर अड़चन है
क्या करूँ दूर नही कर पता
ऐसी वैसी भी नही मुशिकल अड़चन है
फ़िर भी चाहता हूँ दूर करना
पर सम्भव भी कैसे
दूर करे भी करे कैसे
जो बन पड़ा किया
किंतु अब बस
हाथ पे हाथ धरा बैठा रहा
बैठा रहा घंटो इस इंतजार मै
की कोई तो आए
पूछे मेरे हाल चाल
किंतु मै और मेरी परिचाह्यीं
कर रही दुहाई कोई तो आये
भूले भटके पैर बढाए
राह की उपियोगिता बढाए
शायद मै गलत
मेरी तरह राह भी अकेली
जैसे मै और मेरा सूनापन
राह और उसपे बिखरे पथरीले कंकड़
शायद अब यही एहसास बची गले लगाने को
की मै ही मेरा यार हूँ !
शाम ढल रही
परीक्षाई भी साथ छोड़ रही
और ये कहती जा रही
तू अकेला है तू अकेला है
मै समझ गया की मै अकेला हूँ !
प्रस्तुत ब्लॉग के जरिये मै जन -साधारण तक अपने भावनाओं को संप्रेषित करता चाहता हूँ जिससे समाज में एक नयी धारा का प्रवाह हो सके ...मानव आज के इस अर्थ-प्रधान युग में एवं विकाश की इस अंधी दौड़ में सामाजिक-मूल्यों एवं उनके ओउचित्य को ही भुला बैठा है ....बस मै अपने कविता के माध्यम से उन सामाजिक ,सांस्कृतिक मूल्यों को पुनः शुशोभित करना चाहता हूँ जिससे हमारा समाज ही नहीं अपितु समूचा भारत अपने जिस सभ्यता के लिए विश्व के भौगौलिक पटल पर अपनी छाप को बनाये हुए था वो ठीक उसी प्रकार बनी रहे!
its a very nice poem which is presenting the situation of a man aloofness where by if a person is in the opposite situation den how how ur own shadow leave u alone ...
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