प्रस्तुत ब्लॉग के जरिये मै जन -साधारण तक अपने भावनाओं को संप्रेषित करता चाहता हूँ जिससे समाज में एक नयी धारा का प्रवाह हो सके ...मानव आज के इस अर्थ-प्रधान युग में एवं विकाश की इस अंधी दौड़ में सामाजिक-मूल्यों एवं उनके ओउचित्य को ही भुला बैठा है ....बस मै अपने कविता के माध्यम से उन सामाजिक ,सांस्कृतिक मूल्यों को पुनः शुशोभित करना चाहता हूँ जिससे हमारा समाज ही नहीं अपितु समूचा भारत अपने जिस सभ्यता के लिए विश्व के भौगौलिक पटल पर अपनी छाप को बनाये हुए था वो ठीक उसी प्रकार बनी रहे!
रविवार, 8 जुलाई 2012
शनिवार, 7 अप्रैल 2012
शनिवार, 31 मार्च 2012
हिन्दी साहित्य एवं समाज |
जिस प्रकार मनुष्य के बिना एक समाज की परिकल्पना नही की जा सकती ठीक उसी प्रकार हिन्दी के बिना साहित्य बेजान है | साहित्य और समाज का एक गहरा सम्बन्ध है जो हमारे समाज को एक दार्शनिक रूप प्रदान करता है | सीधे एवं सरल शब्दों में हम यह कह सकते हैं की हिन्दी के बिना साहित्य और साहित्य के बिना समाज अधुरा है || साहित्य समाज का दर्पण होता है जो किसी समय एवं काल को दर्शाता है | साहित्य एक सरल एवं सुगम तरीका है जिससे हम समाज के विभिन्न आयामों की परिकल्पना कर पाने में सहज समर्थ हो पाते हैं | साहित्य एक ऐसा मंच है जिसके जरिये कालांतर में घट रही घटनाओं को चित्रित की जा सके |
चिंतन- मनुष्य !
मानव एक विकासौन्मुक्त प्राणी है | वह अपने जीवन काल में अनेको उत्पत्ति करता है ,सृजन करता है कल्पना करता है, अंततः विकास के उस पथ पर आरूढ़ हो जाता है जिस पर वह जीवन कल तक चलता रहता है | मनुष्य जब जन्म लेता है तब वह अबोध एवं असहाय रहता है , रोता है बिलखता है | कदाचित् उसे अपने अस्तित्व का भी ज्ञान नही है | वह भीतर से शुद्ध एवं निर्मल होता है | उसकी आत्मा दुग्ध की भांति श्वेत एवं निर्जल है ।
धीरे धीरे जब वह बड़ा होता है ,उसके जीवन में कई उतार चढ़ाव आता है, वह उनको सहता और काटता हुआ आगे बढ़ता हैं और एक व्यवहारिक जीवन की कामना करते हुए अपने जीवन में एक विलक्षण अध्याय एवं इतिहास की रचना करता है ।
" मानव का स्थायी रवैया ही समाज के चरित्र और स्थाई आधार की संरचना करता है " ।
" मानव के मानवीय गुणों का विकाश उसके सामाजिक परिवेश पर निर्भर करता है "।
"व्यक्ति अपने काल, परीस्थियौं और परिवेश के अनुसार ही अपने व्यक्तित्व का निर्माण कर पाने सहज समर्थ हो पाता हैं " ।
"मनुष्य एक भावनात्मक प्राणी है उसमे विवेक और बुद्दि की उपस्थिति सामान रूप में होती हैं"।
"मानव की सोच उसकी क्षमता का निर्धारण करती है परन्तु उसकी क्षमता उसके सोच से कई गुना बड़ी होती हैं"।
" मानव संघर्षशील प्राणी हैं, जो संघर्षरत है वह जीता हैं जब वह थक जाता है तत पश्चात ही उसके जीवन पे यमराज का हक़ हो जाता है "।
धीरे धीरे जब वह बड़ा होता है ,उसके जीवन में कई उतार चढ़ाव आता है, वह उनको सहता और काटता हुआ आगे बढ़ता हैं और एक व्यवहारिक जीवन की कामना करते हुए अपने जीवन में एक विलक्षण अध्याय एवं इतिहास की रचना करता है ।
" मानव का स्थायी रवैया ही समाज के चरित्र और स्थाई आधार की संरचना करता है " ।
" मानव के मानवीय गुणों का विकाश उसके सामाजिक परिवेश पर निर्भर करता है "।
"व्यक्ति अपने काल, परीस्थियौं और परिवेश के अनुसार ही अपने व्यक्तित्व का निर्माण कर पाने सहज समर्थ हो पाता हैं " ।
"मनुष्य एक भावनात्मक प्राणी है उसमे विवेक और बुद्दि की उपस्थिति सामान रूप में होती हैं"।
"मानव की सोच उसकी क्षमता का निर्धारण करती है परन्तु उसकी क्षमता उसके सोच से कई गुना बड़ी होती हैं"।
" मानव संघर्षशील प्राणी हैं, जो संघर्षरत है वह जीता हैं जब वह थक जाता है तत पश्चात ही उसके जीवन पे यमराज का हक़ हो जाता है "।
प्रस्तुत ब्लॉग के जरिये मै जन -साधारण तक अपने भावनाओं को संप्रेषित करता चाहता हूँ जिससे समाज में एक नयी धारा का प्रवाह हो सके ...मानव आज के इस अर्थ-प्रधान युग में एवं विकाश की इस अंधी दौड़ में सामाजिक-मूल्यों एवं उनके ओउचित्य को ही भुला बैठा है ....बस मै अपने कविता के माध्यम से उन सामाजिक ,सांस्कृतिक मूल्यों को पुनः शुशोभित करना चाहता हूँ जिससे हमारा समाज ही नहीं अपितु समूचा भारत अपने जिस सभ्यता के लिए विश्व के भौगौलिक पटल पर अपनी छाप को बनाये हुए था वो ठीक उसी प्रकार बनी रहे!
.हम सिर्फ गुजरात दंगे की क्यों बात करते हैं ...ऐसे कई दंगे है जिनका मै जिक्र नहीं करूँगा पर उसमे सैकड़ों हिन्दू मारे गए ...आज भी मऊ दंगो में कई हिंदूं बेटियां नहीं मिली जिसको बीते ३ साल से भी ज्यादा हो गएँ हैं ! हम कब तक एक दुसरे को इल्जमियत की टोपी पहनते रहेंगे ....क्या किसी भी दंगे की लिए सिर्फ सरकार ही जिम्मेदार होते..हम कब सीखेंगे अपनी कमियौं को अपनाना !
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सोमवार, 26 मार्च 2012
शनिवार, 24 मार्च 2012
शुक्रवार, 23 मार्च 2012
शनिवार, 17 मार्च 2012
आज जिस गति से हम और हमारा भारत विकाश कर रहा है वह हमारे आकांक्षाओं के लिए पर्याप्त नहीं है . आज भी भारत की बहुमुखी समाज की कामना सपनो में ही है .हमारे विकाश की परियोजना सिर्फ शहरों तक सिमित हैं ....आओ हम सब मिल कर इसे एक नया रूप दें . एक नयी सोच का निर्माण करे ...आज हम MBA कर के किसी भी कंपनी में विकाश की आधारशीला रखते है ...वही आधारशीला अपने गावं और समाज में रखे ..MBA कर के मेनेजर बन सकते है .....ग्राम पंचायत का मुखिया क्यों नहीं .. विधान सभा का विधायक क्यों नहीं ...संसद सदन का सदस्य क्यों नहीं ..?
यादों का लम्हा !
यादों को पिघलने मत देना
वक्त को गुजरने मत देना
रातों को बितने से पहले
सपनों को टूटने मत देना
यादों को पिघलने मत देना !
हर सुबह होने से पहले
एक लम्हा बितने से पहले
एहसासों को सँजों के रखना
हर दुआ में मेरा नाम रखना
यादों को पिघलने मत देना !
तुम देना पंख मेरे सपनो को
एक आवाज़ मेरे गीतों को
चाहे कितनी भी हो रफ़्तार
एक आशियाना बनाये रखना
यादों को पिघलने मत देना !
वक्त को गुजरने मत देना
मासूमियत को खोने मत देना
हर साथ को यादगार बना देना
राहों पे पैरों के निशाँ छोड़ देना
यादों को पिघलने मत देना !
अपने खुशबू को फिज़ा में घोल देना
मै आऊंगा तेरे पैरों के निशाँ ढूंढ कर
उन हवाओं में खुद का पैगां भेज कर
उन यादों को बाहों में समेट कर ।
मैं और तेरी आहट
मेरे आने के साथ कुछ ढूँढती है निगाहें तेरे क़दमों की आहट और आँखों की काजल जो देती है राहत, एक प्यारी सी शरारत मेरे आने के साथ कुछ ढूँढती है निगाहें ।तेरे आने के साथ एक छाती हैं खामोशी जो लाती है होठो पे एक शांत सी इनायात फिज़ा में घुलती है एक खुशबू की बनावट जो खुद से करती है शराफत की बगावत मेरे आने के साथ कुछ ढूँढती है निगाहें !तेरे कदमो की आहट बढाती है धड़कन जो लाती है एक यादों की मीठी से छुअन जब बैठती हो समेटे शर्म की हया जो लाती है होठों पे मुस्कानों की शिरकत मेरे आने के साथ कुछ ढूँढती है निगाहें !लगने लगती है रंगे फ़िजाएँसोचता हूँ कुछ बयां करूँ पर रुक जातें हैं मेरे होठ जब देखता हूँ तेरे पलकों की हरकत और होठो की शिरकतमेरे आने के साथ कुछ ढूँढती है निगाहें !
रविवार, 12 फ़रवरी 2012
नारी की अभिलाषा
नारी की अभिलाषा को
जग वाले न समझेंगे
मर्दों की दुनिया में
नारी रिश्तों में आकीं जाएगी
एहसासों का मोल नहीं
तन से ही तौली जाएगी
प्यार की अंधी आड़ में
नारी मर्दों में परोसी जाएगी
हवास की जलती आग में
नारी सदा ही झोकी जाती है ,
दुनिया का दस्तूर अजब हैं
समय काल की रीत अजब हैं
रिश्तों की बुनियाद है नारी
हर समाज पर कर्ज है भारी |
हुस्न की मलिका
ए हुस्न की मलिका जवान दिलो पे यूँ न कहर बरसाया करो
ए शोख आदाओं से हमको हर बार न तुम तड़पाया करो
तेरे कातिल नज़रों ने जालिम सरे आम दिलों पे वार किया
ए हुस्न की मलिका जवान दिलो पे यूँ न कहर बरसाया करो ....
ए परवानो तुम क्या जानो जलना तो तेरी फिदरत है
ए हुस्न के दीवानों हम पर मरना तो तेरी किस्मत है
ए हुस्न की मलिका जवान दिलो पे यूँ न कहर बरसाया करो......
इश्क की दरिया में हमको सौ बार डुबाया है हमको
दिल नशी जवानी ने जानम मधहोश बनाया हैं हमको
ए हुस्न की मलिका जवान दिलो पे यूँ न कहर बरसाया करो.......
ए हुस्न समां के परवानो तेरे प्यार की आदत हैं हमको
तुम प्यार करो तुम प्यार करो इठलाना मेरी आदत हैं
ए हुस्न की मलिका जवान दिलो पे यूँ न कहर बरसाया करो ...!
शनिवार, 11 फ़रवरी 2012
एक धर्मं के ठेकेदार से तो एक वेश्या अच्छी हैं जिसका कोई धर्म, जात-पात नहीं हैं, जो जात पात से ऊपर उठ कर अपने तन का सौदा करती है जो उसकी मजबूरी का एक जीता-जागता उदहारण है जिसकी वजह से हमारे समाज का सांस्कृतिक मुखोटा बचा रहता है अपितु अपने देश को खोखला नहीं करती परन्तु जो धर्मं के नाम पर अपना स्वार्थ सिद्ध कर रहे धर्मं के ठेकेदार अपने देश के सपूतो को जो एक ही माटी में जन्मे, खेले और समां गए, उन्हें बाटते हैं अलगाववाद भूमिवाद जैसे सामाजिक श्राप को जन्म देतें हैं |
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