शनिवार, 31 मार्च 2012

चिंतन- मनुष्य !

मानव एक विकासौन्मुक्त प्राणी है | वह अपने जीवन काल में अनेको उत्पत्ति करता है ,सृजन करता है कल्पना करता है, अंततः विकास के उस पथ पर आरूढ़ हो जाता है जिस पर वह जीवन कल तक चलता रहता है | मनुष्य जब जन्म लेता है तब वह अबोध एवं असहाय रहता है , रोता है बिलखता है | कदाचित् उसे अपने अस्तित्व का भी ज्ञान नही है | वह भीतर से शुद्ध एवं निर्मल होता है | उसकी आत्मा दुग्ध की भांति श्वेत एवं निर्जल है ।
  धीरे धीरे जब वह बड़ा होता है ,उसके जीवन में कई उतार चढ़ाव आता है, वह उनको सहता और काटता हुआ आगे बढ़ता हैं और एक व्यवहारिक जीवन की कामना करते हुए अपने जीवन में एक विलक्षण अध्याय एवं इतिहास की रचना करता है ।
" मानव का स्थायी रवैया ही समाज के चरित्र और स्थाई आधार की संरचना करता है " ।
" मानव के मानवीय गुणों का विकाश उसके सामाजिक परिवेश पर निर्भर करता है "।
"व्यक्ति अपने काल, परीस्थियौं और परिवेश के अनुसार ही अपने व्यक्तित्व का निर्माण कर पाने सहज समर्थ हो पाता हैं " ।
"मनुष्य एक भावनात्मक प्राणी है उसमे विवेक और बुद्दि की उपस्थिति सामान रूप में होती हैं"।
"मानव की सोच उसकी क्षमता का निर्धारण करती है परन्तु उसकी क्षमता उसके सोच से कई गुना  बड़ी होती हैं"।  
" मानव  संघर्षशील प्राणी हैं, जो संघर्षरत है वह जीता हैं जब वह थक जाता है तत पश्चात ही उसके जीवन पे यमराज का हक़ हो जाता है "।

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